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तिलहन फसल

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

इस वैज्ञानिक विधि से करोगे खेती, तो यह तिलहन फसल बदल सकती है किस्मत

पिछले कुछ समय से टेक्नोलॉजी में काफी सुधार की वजह से कृषि की तरफ रुझान देखने को मिला है और बड़ी-बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों को छोड़कर आने वाले युवा भी, अब धीरे-धीरे नई वैज्ञानिक तकनीकों के माध्यम से भारतीय कृषि को एक बदलाव की तरफ ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।

जो खेत काफी समय से बिना बुवाई के परती पड़े हुए थे, अब उन्हीं खेतों में अच्छी तकनीक के इस्तेमाल और सही समय पर अच्छा मैनेजमेंट करने की वजह से आज बहुत ही उत्तम श्रेणी की फसल लहलहा रही है। 

इन्हीं तकनीकों से कुछ युवाओं ने पिछले 1 से 2 वर्ष में तिलहन फसलों के क्षेत्र में आये हुए नए विकास के पीछे अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। तिलहन फसलों में मूंगफली को बहुत ही कम समय में अच्छी कमाई वाली फसल माना जाता है।

पिछले कुछ समय से बाजार में आई हुई हाइब्रिड मूंगफली का अच्छा दाम तो मिलता ही है, साथ ही इसे उगाने में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो गए हैं। केवल दस बीस हजार रुपये की लागत में तैयार हुई इस हाइब्रिड मूंगफली को बेचकर अस्सी हजार रुपये से एक लाख रुपए तक कमाए जा सकते हैं।

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इस कमाई के पीछे की वैज्ञानिक विधि को चक्रीय खेती या चक्रीय-कृषि के नाम से जाना जाता है, जिसमें अगेती फसलों को उगाया जाता है। 

अगेती फसल मुख्यतया उस फसल को बोला जाता है जो हमारे खेतों में उगाई जाने वाली प्रमुख खाद्यान्न फसल जैसे कि गेहूं और चावल के कुछ समय पहले ही बोई जाती है, और जब तक अगली खाद्यान्न फसल की बुवाई का समय होता है तब तक इसकी कटाई भी पूरी की जा सकती है। 

इस विधि के तहत आप एक हेक्टर में ही करीब 500 क्विंटल मूंगफली का उत्पादन कर सकते हैं और यह केवल 60 से 70 दिन में तैयार की जा सकती है।

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मूंगफली को मंडी में बेचने के अलावा इसके तेल की भी अच्छी कीमत मिलती है और हाल ही में हाइब्रिड बीज आ जाने के बाद तो मूंगफली के दाने बहुत ही बड़े आकार के बनने लगे हैं और उनका आकार बड़ा होने की वजह से उनसे तेल भी अधिक मिलता है। 

चक्रीय खेती के तहत बहुत ही कम समय में एक तिलहन फसल को उगाया जाता है और उसके तुरंत बाद खाद्यान्न की किसी फसल को उगाया जाता है। जैसे कि हम अपने खेतों में समय-समय पर खाद्यान्न की फसलें उगाते हैं, लेकिन एक फसल की कटाई हो जाने के बाद में बीच में बचे हुए समय में खेत को परती ही छोड़ दिया जाता है, लेकिन यदि इसी बचे हुए समय का इस्तेमाल करते हुए हम तिलहन फसलों का उत्पादन करें, जिनमें मूंगफली सबसे प्रमुख फसल मानी जाती है।

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भारत में मानसून मौसम की शुरुआत होने से ठीक पहले मार्च में मूंगफली की खेती शुरू की जाती है। अगेती फसलों का सबसे बड़ा फायदा यह होता है कि इन्हें तैयार होने में बहुत ही कम समय लगता है, साथ ही इनकी अधिक मांग होने की वजह से मूल्य भी अच्छा खासा मिलता है। 

इससे हमारा उत्पादन तो बढ़ेगा ही पर साथ ही हमारे खेत की मिट्टी की उर्वरता में भी काफी सुधार होता है। इसके पीछे का कारण यह है, कि भारत की मिट्टि में आमतौर पर नाइट्रोजन की काफी कमी देखी जाती है और मूंगफली जैसी फसलों की जड़ें नाइट्रोजन यौगिकीकरण या आम भाषा में नाइट्रोजन फिक्सेशन (Nitrogen Fixation), यानी कि नाइट्रोजन केंद्रीकरण का काम करती है और मिट्टी को अन्य खाद्यान्न फसलों के लिए भी उपजाऊ बनाती है। 

इसके लिए आप समय-समय पर कृषि विभाग से सॉइल हेल्थ कार्ड के जरिए अपनी मिट्टी में उपलब्ध उर्वरकों की जांच भी करवा सकते हैं।

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मूंगफली के द्वारा किए गए नाइट्रोजन के केंद्रीकरण की वजह से हमें यूरिया का छिड़काव भी काफी सीमित मात्रा में करना पड़ता है, जिससे कि फर्टिलाइजर में होने वाले खर्चे भी काफी कम हो सकते हैं। 

इसी बचे हुए पैसे का इस्तेमाल हम अपने खेत की यील्ड को बढ़ाने में भी कर सकते हैं। यदि आपके पास इस प्रकार की हाइब्रिड मूंगफली के अच्छे बीज उपलब्ध नहीं है तो उद्यान विभाग और दिल्ली में स्थित पूसा इंस्टीट्यूट के कृषि वैज्ञानिकों के द्वारा समय-समय पर एडवाइजरी जारी की जाती है जिसमें बताया जाता है कि आपको किस कम्पनी की हाइब्रिड मूंगफली का इस्तेमाल करना चाहिए। 

समय-समय पर होने वाले किसान चौपाल और ट्रेनिंग सेंटरों के साथ ही दूरदर्शन के द्वारा संचालित डीडी किसान चैनल का इस्तेमाल कर, युवा लोग मूंगफली उत्पादन के साथ ही अपनी स्वयं की आर्थिक स्थिति तो सुधार ही रहें हैं, पर इसके अलावा भारत के कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाने में अपना भरपूर सहयोग दे रहे हैं। 

आशा करते हैं कि मूंगफली की इस चक्रीय खेती विधि की बारे में Merikheti.com कि यह जानकारी आपको पसंद आई होगी और आप भी भारत में तिलहन फसलों के उत्पादन को बढ़ाने के अलावा अपनी आर्थिक स्थिति में भी सुधार करने में सफल होंगे।

किसानों को मिलेगा चार हजार रुपए प्रति एकड़ का अनुदान, लगायें ये फसल

किसानों को मिलेगा चार हजार रुपए प्रति एकड़ का अनुदान, लगायें ये फसल

दलहन व तिलहन फसल लगाने पर अनुदान

देश में
दलहन एवं तिलहन फसलों का उत्पादन कम एवं माँग अधिक है. यही कारण है कि किसानों को इन फसलों के अच्छे मूल्य मिल जाते हैं. वहीँ दलहन या तिलहन की खेती में धान की अपेक्षा पानी भी कम लगता है। यही कारण है कि अलग-अलग राज्य सरकारें किसानों को धान की फसल छोड़ दलहन एवं तिलहन फसल लगाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। केंद्र सरकार भी किसानों को दलहन और तिलहन की खेती करने के लिय प्रोत्साहित करती है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है की भारत खाद्य पदार्थों जैसे, धान, गेहूं आदि में तो आत्मनिर्भर है, पर दलहन और तिलहन में आत्मनिर्भर नहीं हो सका है। आज भी देश में बाहर से दलहन का आयात करना पड़ता है। स्वाभाविक है की राज्य सरकारें दलहन और तिलहन की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित करती है। इसी नीति के तहत हरियाणा सरकार ने दलहन और तिलहन फसलों पर अनुदान देने का निर्णय लिया है.

ये भी पढ़ें: दलहन की फसलों की लेट वैरायटी की है जरूरत दलहन फसलों जैसे मूँग एवं अरहर और तिलहन फसलों जैसे अरंडी व मूँगफली की फसल लगाने पर किसानों को प्रोत्साहित करने के लिये अनुदान का प्रावधान किया है. हरियाणा सरकार के अनुदान के फैसले के पीछे बड़ा उद्देश्य यह भी है की इससे किसानों की आमदनी बढ़ाई जा सके. इस योजना का दोहरा लाभ किसानों को होगा. क्योकि एक तो दलहन और तिलहन फसलों की कीमत भी किसानों को अधिक प्राप्त होगा और साथ ही साथ अनुदान की राशि भी सहायक हो सकेगा. सरकार ने इन फसलों को उगाने वाले किसानों को अनुदान के रूप में प्रति एकड़ चार हजार रुपए देने का निर्णय लिया है।

सात ज़िले के किसानों को मिलेगा योजना का लाभ :

हरियाणा सरकार की ओर से झज्जर सहित दक्षिण हरियाणा के सात जिलों का चयन इस अनुदान योजना के लिये किया गया है. इन सात जिलों में झज्जर भिवानी, चरखी दादरी, महेंद्रगढ़, रेवाड़ी, हिसार व नूंह शामिल है. हरियाणा सरकार नें इन सात जिलों के दलहन और तिलहन की खेती करने वाले किसानों के लिए विशेष योजना की शुरुआत की है। इस योजना को अपनाने वाले किसानों को चार हजार रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से वित्तीय सहायता दी जाएगी।

कितना अनुदान मिलेगा किसानों को ?

हरियाणा सरकार द्वारा फसल विविधीकरण के अंतर्गत दलहन व तिलहन की फसलों को बढ़ावा देने के लिए इस नई योजना की शुरुआत की गयी है। योजना के तहत दलहन व तिलहन की फसल उगाने वाले किसानों को 4,000 रुपये प्रति एकड़ वित्तीय सहायता प्रदान की जायेगी. यह योजना दक्षिण हरियाणा के 7 जिलों: झज्जर, भिवानी, चरखी दादरी, महेन्द्रगढ, रेवाड़ी, हिसार तथा नूंह में खरीफ मौसम 2022 के लिये लागू की जायेगी.

ये भी पढ़ें: तिलहनी फसलों से होगी अच्छी आय हरियाणा सरकार नें प्रदेश में खरीफ मौसम 2022 के दौरान एक लाख एकड़ में दलहनी व तिलहनी फसलों को बढ़ावा देने का लक्ष्य तय किया है. सरकार नें इस योजना के तहत दलहनी फसलें मूँग व अरहर को 70,000 एकड़ क्षेत्र में और तिलहन फसल अरण्ड व मूँगफली को 30,000 एकड़ में बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा है.

किसान यहाँ करें आवेदन

चयनित सातों ज़िलों के किसानों को योजना का लाभ लेने के लिए ऑनलाइन आवेदन करना होगा. इसके लिए किसानों को मेरी फसल मेरा ब्यौरा पोर्टल जाकर सबसे पहले पंजीकरण कराना होगा. वित्तीय सहायता फसल के सत्यापन के उपरान्त किसानों के खातों में स्थानान्तरण की जाएगी.  
अलसी की खेती से भाग जाएगा आर्थिक आलस

अलसी की खेती से भाग जाएगा आर्थिक आलस

किसान जितनी मेहनत करते हैं, उन्हें उतना पैसा मिल जाता तो क्या कहना था। लेकिन, एक समस्या यह भी है, कि किसान आमतौर पर पारंपरिक खेती से इतर प्रयोग करने से बचाते हैं। लेकिन, आज हम एक ऐसी फसल के बारे में बता रहे है, जिसकी खेती की जाए तो जिन्दगी से आर्थिक आलस का खात्मा तय है। आज हम बात कर रहे हैं, अलसी की।

अलसी एक प्रयोग अनेक

अलसी तिलहन फसल है और आजकल यह बहुत बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। इसकी वजह है, इसमें ओमेगा फैटी एसिड का पाया जाना, अलसी के तेल का पेंट्स, वार्निश व स्नेहक बनाने के साथ पैड इंक तथा प्रेस प्रिटिंग हेतु स्याही तैयार करने में उपयोग किया जाता है। इसमें पोषक तत्वों की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है।


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मौसम:

इसकी खेती के लिए ठंडे व शुष्क जलवायु की जरूरत है, यह असल में रबी फसल है। इसके उचित अंकुरण हेतु 25-30 डिग्री से.ग्रे. तापमान तथा बीज बनते समय तापमान 15-20 डिग्री से.ग्रे. होना चाहिए।

जमीन:

इसकी खेती के लिये काली भारी एवं दोमट (मटियार) मिट्टी सही है, अधिक उपजाऊ मृदाओं की अपेक्षा मध्यम उपजाऊ मृदायें अच्छी समझी जाती हैं। उचित जल निकास का प्रबंध होना चाहिए। खेत भुरभुरा एवं खरपतवार रहित होना चाहिये, दो से तीन बार हैरो चलाना आवश्यक है, जिससे नमी संरक्षित रह सके। अलसी के बीज को कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिये अथवा ट्राइकोडरमा विरीडी की 5 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकोडरमा हारजिएनम की 5 ग्राम एवं कार्बाक्सिन की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये।


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बेहतर उत्पादन के लिए इसे 2 सिंचाई की आवश्यकता होती है, पहली सिंचाई बुवाई के एक माह बाद एवं दूसरी सिंचाई फल आने से पहले करनी चाहिये। विभिन्न प्रकार के रोग जैसे गेरूआ, उकठा, चूर्णिल आसिता तथा आल्टरनेरिया अंगमारी एवं कीट यथा फली मक्खी, अलसी की इल्ली, अर्धकुण्डलक इल्ली चने की इल्ली द्वारा भारी क्षति पहुचाई जाती है। इसके लिए उचित प्रबंधन किए जाने की जरूरत है। अलसी की जब पत्तियाँ सूखने लगें, केप्सूल भूरे रंग के हो जायें और बीज चमकदार बन जाय तब फसल की कटाई करनी चाहिये। बीज में 70 प्रतिशत तक सापेक्ष आद्रता तथा 8 प्रतिशत नमी की मात्रा भंडारण के लिये सर्वोत्तम है।
कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के चमत्कारिक फायदे

कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के चमत्कारिक फायदे

ट्राइकोडर्मा कवक की एक प्रजाति है जो पौधों पर अपने विविध लाभकारी प्रभावों के कारण कृषि और बागवानी में निरंतर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। कवक का यह बहुमुखी समूह अपने माइकोपरसिटिक, बायोकंट्रोल और पौधों के विकास को बढ़ावा देने वाले गुणों के लिए बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही  है।

 1. माइकोपैरासिटिक क्षमताएं

ट्राइकोडर्मा प्रजातियां निपुण माइकोपैरासाइट हैं, जिसका अर्थ है कि वे अन्य कवक के विकास को परजीवीकृत और नियंत्रित करते हैं। यह विशेषता कृषि में विशेष रूप से मूल्यवान है, जहां मिट्टी से पैदा होने वाले रोगज़नक़ फसल को महत्वपूर्ण नुकसान पहुंचाते हैं। वही ट्राइकोडर्मा की विविध प्रजातियां पोषक तत्वों और स्थान के लिए हानिकारक कवक से प्रतिस्पर्धा करके सक्रिय रूप से हमला करते हैं और उनके विकास को रोकते हैं।

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 2. बायोकंट्रोल एजेंट

ट्राइकोडर्मा फ्यूसेरियम, राइजोक्टोनिया और पाइथियम की प्रजातियों सहित पौधों के रोगजनकों की एक विस्तृत श्रृंखला के खिलाफ एक प्राकृतिक बायोकंट्रोल एजेंट के रूप में कार्य करता है। राइजोस्फीयर और जड़ सतहों पर कॉलोनी बनाकर, ट्राइकोडर्मा एक सुरक्षात्मक अवरोध स्थापित करता है, जो रोगजनक कवक को पौधों की जड़ों को संक्रमित करने से रोकता है। यह जैव नियंत्रण तंत्र सिंथेटिक रासायनिक कवकनाशी की आवश्यकता को कम करता है, टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल कृषि प्रथाओं को बढ़ावा देता है।

 3. पौधों की रक्षा तंत्र को शामिल करना

ट्राइकोडर्मा पौधे की अपनी रक्षा तंत्र को प्रेरित करता है, जिससे रोगों के प्रति उसकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।  कवक पौधों में विभिन्न रक्षा-संबंधी यौगिकों, जैसे फाइटोएलेक्सिन और रोगजनन-संबंधी प्रोटीन के उत्पादन को उत्तेजित करता है।  यह प्रणालीगत प्रतिरोध फसलों को संक्रमण और तनाव का सामना करने में मदद करता है, जिससे पौधों के समग्र स्वास्थ्य में योगदान होता है।

 4. पोषक तत्व घुलनशीलता

कुछ ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियां फॉस्फोरस,लोहा जिंक के साथ साथ अन्य सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे आवश्यक पोषक तत्वों को घुलनशील बनाने की क्षमता प्रदर्शित करती हैं, जिससे वे पौधों के लिए अधिक उपलब्ध हो जाते हैं। यह पोषक तत्व घुलनशीलता पौधों की वृद्धि और विकास को बढ़ाती है, विशेष रूप से पोषक तत्वों की कमी वाली मिट्टी में, और सिंथेटिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करती है।

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5. उन्नत जड़ विकास

ट्राइकोडर्मा ऑक्सिन और अन्य पौधों के विकास को बढ़ावा देने वाले पदार्थों का उत्पादन करके जड़ विकास और शाखाओं को बढ़ावा देता है।  बेहतर जड़ प्रणालियों के परिणामस्वरूप बेहतर पोषक तत्व और पानी ग्रहण होता है, जिससे पौधों की ताकत और समग्र फसल उत्पादकता में वृद्धि होती है।

6. तनाव सहनशीलता

ट्राइकोडर्मा पौधों को विभिन्न पर्यावरणीय तनावों, जैसे सूखा, लवणता और अत्यधिक तापमान से निपटने में मदद करता है।  ट्राइकोडर्मा और पौधों के बीच बनने वाला सहजीवी संबंध पौधों की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में अनुकूलन और जीवित रहने की क्षमता को बढ़ा सकता है, जिससे अंततः अधिक लचीली फसलें पैदा होती हैं।

7. कार्बनिक पदार्थ का जैव निम्नीकरण

 ट्राइकोडर्मा प्रजातियाँ मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ के विघटन में योगदान करती हैं।  वे एंजाइमों का स्राव करते हैं जो कार्बनिक अवशेषों के अपघटन की सुविधा प्रदान करते हैं, जिससे पोषक तत्व मिट्टी में वापस आ जाते हैं।  यह पुनर्चक्रण प्रक्रिया मिट्टी की संरचना और उर्वरता में सुधार करती है, जिससे पौधों के विकास के लिए अनुकूल वातावरण बनता है।

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 8. व्यावसायिक प्रयोग

ट्राइकोडर्मा-आधारित जैव कवकनाशी और जैव उर्वरकों ने कृषि उद्योग में लोकप्रियता हासिल की है।  जीवित ट्राइकोडर्मा इनोकुलेंट्स युक्त इन वाणिज्यिक उत्पादों को ऊपर चर्चा किए गए विभिन्न लाभ प्रदान करने के लिए बीज, मिट्टी या पौधों की सतहों पर लगाया जाता है।  टिकाऊ और पर्यावरण-अनुकूल कृषि को बढ़ावा देने के लिए किसान इन जैविक एजेंटों को अपनी फसल प्रबंधन प्रथाओं में तेजी से एकीकृत कर रहे हैं।

9. नेमाटोड का जैविक नियंत्रण

कुछ ट्राइकोडर्मा उपभेद पौधे-परजीवी नेमाटोड के खिलाफ विरोधी गतिविधि प्रदर्शित करते हैं।  यह जैव नियंत्रण क्षमता नेमाटोड संक्रमण के प्रबंधन में मूल्यवान है, जो फसल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

10. बीज उपचार

ट्राइकोडर्मा-आधारित फॉर्मूलेशन का उपयोग बीज उपचार, मिट्टी-जनित रोगजनकों से बीज की रक्षा करने और अंकुर स्थापना को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है।  यह निवारक उपाय विकास के प्रारंभिक चरण से ही फसलों को स्वस्थ बनाने में योगदान देता है।

सारांश 

कृषि और बागवानी में ट्राइकोडर्मा के बहुमुखी फायदे इसकी माइकोपरसिटिक क्षमताओं, जैव नियंत्रण तंत्र, पौधों की रक्षा प्रतिक्रियाओं को शामिल करने, पोषक तत्व घुलनशीलता, जड़ विकास को बढ़ावा देने, तनाव सहनशीलता बढ़ाने और कार्बनिक पदार्थ अपघटन में योगदान से उत्पन्न होते हैं।  जैसे-जैसे कृषि क्षेत्र टिकाऊ प्रथाओं को अपनाना जारी रखता है, ट्राइकोडर्मा-आधारित उत्पादों का उपयोग पौधों के स्वास्थ्य को बढ़ावा देने, रासायनिक इनपुट को कम करने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है।



Dr AK Singh
डॉ एसके सिंह प्रोफेसर (प्लांट पैथोलॉजी) एवं विभागाध्यक्ष,
पोस्ट ग्रेजुएट डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट पैथोलॉजी,
प्रधान अन्वेषक, अखिल भारतीय फल अनुसंधान परियोजना,डॉ राजेंद्र प्रसाद सेंट्रल एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, पूसा-848 125, समस्तीपुर,बिहार
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